गाजीपुर। भारत की लोक संस्कृति अपने भीतर अनेक रंग और परंपराएँ समेटे हुए है। इन्हीं परंपराओं में से एक रही है रामलीला का उत्सव, जिसे आज से कुछ वर्ष पहले तक नन्दगंज और चाँडीपुर और आसपास के क्षेत्रों में बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता था। यह उत्सव केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक नहीं था, बल्कि सामाजिक मेल-मिलाप और अच्छाई - बुराई का सांस्कृतिक पहचान का भी जीवंत उदाहरण था
श्राद्ध पक्ष के दिनों में कन्या बालिकाएँ मिट्टी की राम सीता की प्रतिमा बनाकर उसे हर एक घर में स्थापित करती थीं। यह प्रतिमा ही पूरे उत्सव का केंद्र होती। प्रतिदिन संध्या समय टोली बनाकर लड़कियों और महिलाएं मिलकर भजन और गीत गाती। इन गीतों में लोकजीवन की सरलता, राम सीता के प्रति श्रद्धा और सामूहिकता का स्वर झलकता था। पूजा के उपरांत प्रसाद वितरण किया जाता, जिससे सहभागिता का भाव और गहरा होता।
उत्सव का समापन राम सीता की आरती करके दशहरा के दिन रावण प्रतिमा का दहन होता था । चाँडीपुर के मौनी बाबा धाम में यह विशेष रूप से किया जाता था। रावण दहन मात्र एक धार्मिक अनुष्ठान न होकर एक बड़े सामाजिक मेले का रूप ले लेता।
गांव - गांव भर से बच्चे, महिलाएं और पुरुष एकत्र होकर मेले का आनंद उठाते
लोकगीत, झूले, खाने-पीने के स्टॉल और पारंपरिक खेल इस अवसर को अविस्मरणीय बना देते थे।
आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो पाते हैं कि यह परंपरा धीरे-धीरे समय की धूल में गुम हो चुकी है। शहरीकरण, व्यस्त जीवनशैली और नई मनोरंजन विधाओं ने इस लोक उत्सव को विस्मृति के गर्त में पहुँचा दिया। अब न तो गलियों में
गीत सुनाई देते हैं और न ही मेले की चहल-पहल नज़र आती है।
फिर भी, राम लीला का उत्सव हमें यह संदेश देता है कि लोक संस्कृति केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं थी, बल्कि समाज को जोड़ने का माध्यम भी थी सामूहिक श्रम, आपसी
उत्सव का समापन पर रावण के प्रतिमा के | दहन के साथ होता था। यह अनुष्ठान एक बड़े मेले का रूप धारण कर लेता झूले, पारंपरिक खेल, लोक व्यंजन और बाल- युवक महिलाओं की चहल-पहल के बीच लोक-जीवन का मनोरंजन अपनी चरम सीमा पर होता था।
मेरे राम के बनबास के वापसी फिर दीवाली का इंतजार की महकार...
नवरात्रि पूजा ,राम लीला , रावण दहन पर सहयोग और मिल-बैठकर आनंद लेने की यह परंपरा आज की पीढ़ी के लिए प्रेरणा बन सकती है।
यदि आने वाली पीढ़ियों को अपनी जड़ों से जोड़े रखना है, तो ऐसे उत्सवों को पुनर्जीवित करने का प्रयास आवश्यक है। स्कूलों, सांस्कृतिक संस्थाओं और सामाजिक संगठनों को इस दिशा में पहल करनी होगी। क्योंकि किसी भी समाज की असली पहचान उसकी लोक संस्कृति से होती है, और राम लीला का उत्सव भारत की उसी पहचान का अनमोल हिस्सा रहा है।