मुंशी प्रेमचंद जी की जन्म जयंती पर प्रो सुबोध झा 'आशु' की रचनात्मक अभिव्यक्ति

(वि न्यूज/वी एन एफ ए/बीबीसी - इंडिया)

जब हम भारतीय हिन्दी साहित्य में सामाजिक न्याय व कुप्रथा पर बात करते हैं तो बरबस हमें प्रेमचंद जी की याद आ जाती है। प्रेमचंद जी हिन्दी साहित्य के वो ध्रुवतारा हैं जिनके इर्द-गिर्द हम जैसे अदना तारे घुमते हैं या यों कहें कि उनका अनुसरण कर सीखते हैं। महान मुंशी प्रेमचंद की लेखनी सदा ही भारतीय मजदूर किसान, जमींदारी प्रथा व सामाजिक कुप्रथा के इर्द-गिर्द ही चलती रही। पूस की रात में हल्कू के पात्र की जंगली जानवरों से फसल को बचाने की जद्दोजहद से लेकर कफ़न में घीसू तथा माधव जैसे पात्रों का साहूकारों द्वारा शोषण, ठाकुर का कूंआं में 'चमार शब्द' जो आज़ की परिस्थिति व आज के युग में अवांछित और अप्रासंगिक लगता है का शोषण पाठक के मन को झकझोर देता है। उनकी कृतित्व को जब निहारता हूं तो लगता है मानो उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी पहले कभी थी क्योंकि सिर्फ समय बदला है परिस्थिति जस की तस है। मैंने भी प्रस्तुत स्वरचित रचना को इसी व्यक्तिगत विषय पर आधारित रखकर उन्हें सहृदय श्रद्धासुमन अर्पित करने का प्रयास किया है। रचना को अधिकतम मुक्तकों में ही लिखा गया है।

अर्थव्यवस्था का वो वर्ग सर्वहारा;

सबसे शोषित वंचित था बेचारा;

दर्द झलका प्रेमचंद की लेखनी में,

बहती रही शब्दों की अविरलधारा।

मुंशी प्रेमचंद हुए ऐसे कलमकार;

रास न आया जमींदारी व्यवहार;

कृषक मजदूरों की बात उठाकर;

व्यवस्था पर किया भीषण प्रहार।

लेखनी में थे मुख्य पात्र किसान;

समाज में नहीं था कोई सम्मान;

उनकी दुर्दशा पर कलम चलाकर;

धनपत राय हुए प्रेमचंद महान।

प्रेमचंद एक उम्दा उपन्यासकार;

कृषकों के मर्म को दिया आकार;

एक कथाकार और नाटककार;

कुप्रथा का सदा किया प्रतिकार।

लेखनी के इर्द-गिर्द गरीब मजदूर;

मेहनती पर थे मेहनताना से दूर;

लेखनी आवाज बनी मजलूमों की;

कृषक मजदूर क्यों होते मजबूर?

मजदूर जो था देश का सरताज;

पर आजीविका को था मुहताज;

सिसक सिसककर दिन थे बीते;

पर जमींदारों को नहीं थी लाज।

सबको खिलाया बना अन्नदाता;

सबको पहनाया कहा वस्त्रदाता;

फिर भी किसी को दया न आई;

दुर्भाग्यवश रूठ गए थे विधाता।

दुखी हुए देख मजदूरों की दुर्गति;

आयी उनकी लेखनी में जागृति;

लिखा प्रेमाश्रय, कर्मभूमि, गोदान;

क्षुब्ध थे देख सामाजिक विकृति।

समाज में कहलाते हैं अन्नदाता;

पर खुद दाने-दाने को तरसते हैं।

बस पहचाने जाते हैं वस्त्रदाता;

पर खुद जाड़े-पाले में ठिठुरते हैं।

कर्ज से भरा बढ़ता गया लगान;

लेखनी ने रचा 'हतभागे किसान';

होरी का जीवन भी अजीब था;

तभी तो लिखा आखिरी 'गोदान'।

बाप लिया बेटा अदा किया कर्ज;

सभी भूल गए थे बस अपना फर्ज;

सिर्फ प्रेमचंद का ही था 'प्रेमाश्रय';

जिसने समझा किसानों का मर्ज।

नायक होरी महज गाय की इच्छा;

बस करता रहा जीवनभर प्रतीक्षा;

आयी भी तो बस महाकर्ज दे गई;

मर गया,किसी ने कहाँ ली शिक्षा?

जीते जी सपना नहीं हुआ पुरा;

कृषक अब भी बना रहा बेचारा;

ईश्वर की लेखनी उनसे तीव्र थी;

अंतत: 'मंगलसूत्र' रह गया अधूरा।

मुंशी प्रेमचंद की मृत्यु बीमारी के कारण 1936 में हो गई और उनका अंतिम उपन्यास *मंगलसूत्र* अधूरा ही रह गया जिसे उनके छोटे बेटे *अमृत राय* ने पुरा किया। भारत में सामाजिक कुप्रथा पर जब भी आधुनिक साहित्यकार अपनी लेखनी चलाते हैं तो अंदाज बस प्रेमचंद महान का ही होता है। ऐसा कर हम उन्हें सच्ची श्रद्धांजली देते हैं।

प्रो सुबोध झा 'आशु'